Monday 17 September 2012

आकांक्षा पारे की कवितायेँ



जबलपुर में जन्मी आकांक्षा उन कवयित्रियों में से हैं जो साधिकार स्त्री-विमर्श के पक्ष में खड़े होने का उद्गोष करती हैं!  उनकी कवितायेँ एक आम स्त्री से लेकर कामकाजी स्त्री के संघर्ष के सभी पहलुओं को समेटते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में आपके सामने आकर खड़ी हो जाती हैं!  सरल और सहज शब्दों में वे अपनी बात आप तक पहुंचाती हैं, कहीं कभी नहीं लगता कि  कोई प्रयास या उपक्रम इसमें शामिल है !



परिचय :  जन्म जबलपुर (मध्यप्रदेश), शिक्षा : देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से पत्रकारिता, जीव-विज्ञानं  में स्नातक, सभी पत्र -पत्रिकाओं में कवितायेँ-कहानियां प्रकाशित, हिंदी आउटलुक से जुडाव!


कहानी पर ’रमाकांत स्मृति’ पुरस्कार (2011), अभी हाल ही में इलाहाबाद बैंक द्वारा इला-त्रिवेणी सम्मान 2012 से सम्मानित!


औरत के शरीर में लोहा


औरत लेती है लोहा हर रोज़
सड़क पर, बस में और हर जगह
पाए जाने वाले आशिकों से

उसका मन हो जाता है लोहे का
बचती  नहीं हैं संवेदनाएँ

बड़े शहर की भाग-दौड़ के बीच
लोहे के चने चबाने जैसा है
दफ़्तर और घर के बीच का संतुलन
कर जाती है वह यह भी आसानी से

जैसे लोहे पर चढ़ाई जाती है सान
उसी तरह वह भी हमेशा
चढ़ी रहती है हाल पर

इतना लोहा होने के बावजूद
एक नन्ही किलकारी
तोड़ देती है दम
उसकी गुनगुनी कोख में
क्योंकि
डॉक्टर कहते हैं
ख़ून में लोहे की कमी थी।

घर संभालती स्त्री

गुस्सा जब उबलने लगता है दिमाग में
प्रेशर कुकर चढ़ा देती हूँ गैस पर
भाप निकलने लगती है जब
एक तेज़ आवाज़ के साथ
ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाता है दिमाग
पलट कर जवाब देने की इच्छा पर
पीसने लगती हूँ, एकदम लाल मिर्च
पत्थर पर और रगड़ कर बना देती हूँ
स्वादिष्ट चटनी

जब कभी मन किया मैं भी मार सकूँ
किसी को
तब
धोती हूँ तौलिया, गिलाफ़ और मोटे भारी परदे
जो धुल सकते थे आसानी से वॉशिंग मशीन में
मेरे मुक्के पड़ते हैं उन पर
और वे हो जाते हैं
उजले, शफ़्फ़ाक सफ़ेद

बहुत बार मैंने पूरे बगीचे की मिट्टी को
कर दिया है खुरपी से उलट-पलट
गुड़ाई के नाम पर
जब भी मचा है घमासान मन में

सूती कपड़ों पर पानी छिड़क कर
जब करती हूं इस्त्री
तब पानी उड़ता है भाप बन कर
जैसे उड़ रही हो मेरी ही नाराज़गी
किसी जली हुई कड़ाही को रगड़ कर
घिसती रहती हूँ लगातार
चमका देती हूँ
और लगता है बच्चों को दे दिए हैं मैंने इतने ही उजले संस्कार

घर की झाड़ू-बुहारी में
पता नहीं कब मैं बुहार देती हूँ अपना भी वजूद
मेरे परिवार में, रिश्तेदारों में, पड़ोस में
जहाँ भी चाहें पूछ लीजिए
सभी मुझे कहते हैं
दक्ष गृहिणी।

बित्ते भर की चिंदी


पीले पड़ गए उन पन्नों पर
सब लिखा है बिलकुल वैसा ही
कागज़ की सलवटों के बीच
बस मिट गए हैं कुछ शब्द।

अस्पष्ट अक्षरों को
पढ़ सकती हूं बिना रूके आज भी
बित्ते भर की चिंदी में
समाई हुई हूँ मैं।

अनगढ़ लिखावट से
लिखी गई है एक अल्हड़ प्रणय-गाथा
उसमें मौज़ूद है
सांझे सपने, सांझा भय
झूले से भी लंबी प्रेम की पींगे

उसमें मौज़ूद है
मुट्ठी में दबे होने का गर्म अहसास
क्षण भर को खुली हथेली की ताजा साँस
फिर पसीजती हथेलियों में क़ैद होने की गुनगुनाहट

अर्से से पर्ची ने
देखी नहीं है धूप
न ले पाई है वह
चैन की नींद

कभी डायरी
तो कभी संदूकची में
छुपती रही है यहाँ-वहाँ
ताकि कोई देख न ले
और जान न जाए
चिरस्वयंवरा होने का राज।

रिश्ते


बिना आवाज़
टूटते हैं रिश्ते
या
उखड़ जाते हैं
जैसे
धरती का सीना फाड़े
मजबूती से खड़ा
कोई दरख़्त
आंधी से हार कर
छोड़ देता है अपनी जड़े!


टुकड़ों में भलाई


हर जगह मचा है शोरख़त्म हो गया है अच्छा आदमी
रोज़ आती हैं ख़बरें
अच्छे आदमी का साँचा
बेच दिया है ईश्वर ने कबाड़ी को


'अच्छे आदमी होते कहाँ हैं
का व्यंग्य मारने से 
चूकना नहीं चाहता कोई
एक दिन विलुप्त होते भले आदमी ने
खोजा उस कबाड़ी को
और 
मांग की उस साँचे की


कबाड़ी ने बताया 
साँचा टूट कर बिखर गया है
बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में
कभी-कभी उस भले आदमी को
दिख जाते हैं, वे टुकड़े
किसी बच्चे के रूप में जो
हाथ थामे बूढ़े का पार कराता है सड़क
भरी बस में गोद में बच्चा लिए
चढ़ी स्त्री के लिए सीट छोड़ता युवा
चौराहे पर भरे ट्रैफिक में 
मंदिर दिख जाने पर सिर नवाती लड़की
विलुप्त होता भला आदमी ख़ुश है
टुकड़ों में ही सही
ज़िन्दा है भलाई!



बदलती परिभाषा


बचपन में कहती थी माँ
प्यार नहीं होता हँसी-खेल
वह पनपता है दिल की गहराई में
रोंपे गए उस बीज से
जिस पर पड़ती है आत्मीयता की खाद
होता है विचारों का मेल।

साथ ही समझाती थी माँ
प्रेम नहीं होता गुनाह कभी
वह हो सकता है कभी भी
उसके लिए नहीं होते बंधन
न वह क़ैद है नियमों में


आज अचानक बदल रही है माँ
अपनी ही परिभाषा
उसके चेहरे पर उभर आया है भय
जैसे किया हो कोई अपराध उसने
अब समझाती है वह
परियों और राजकुमारियों के किस्सों में
पनपता है प्यार
या फिर रहता है क़िताबों के चिकने पन्नों पर


लेकिन एक दिन आएगा
जब तुम कर सकोगी प्यार, सच में
ज़माना बदल जाएगा
प्रेम का रेशमी अहसास
उतर आएगा, खुरदुरे यथार्थ पर
तब तक, बस तब तक
बन्द रखो अपनी आँखें
और समेट लो सुनहरे सपने।



प्रस्तुति :  अंजू शर्मा एवं यशवंत माथुर 

Wednesday 12 September 2012

संध्या नवोदिता की लघु कविताएं


मित्रों अंजू जी की अस्वस्थता की वजह से इस ब्लॉग पर एक अल्प विराम रहा है। आज के अंक मे हम आपके लिये ले कर आए हैं संध्या नवोदिता जी की कुछ लघु कविताएं। 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह ही संध्या जी की कविताएं अंतर्निहित संदेश को पाठक तक प्रेषित करने मे पूरी तरह सक्षम हैं।

यह एक सुखद संयोग है कि आज 12 सितंबर संध्या जी का जन्मदिन है। 'उड़ान अन्तर्मन की' और इसके सभी पाठकों की ओर से संध्या जी को हमारी हार्दिक शुभ कामनाएँ!



संध्या नवोदिता
जन्म : १२ सितम्बर १९७६. बरेली
एक संवेदनशील कवयित्री, कवि गोष्ठियों में निरंतर शिरकत, सहारा समय के लिए फीचर लेखों की लम्बी श्रृंखला!
'जिसे तुम देह से नहीं सुन सके' काव्य संग्रह प्रकाशाधीन
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित
'HISTORY WILLABSOLVE ME' फिदेल कास्त्रो की किताब का हिंदी अनुवाद 'इतिहास मुझे बरी करेगा', फिदेल कास्त्रो के लेख Words to Intellectuals का हिंदी अनुवाद  'बुद्धिजीवियों से मुखातिब'






औरतें


कहाँ हैं औरतें?
जिंदगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक़्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख्वाबों के फंदे डालती
घायल उँगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें

एक रात में समूचा युग पार करतीं
हांफती हैं हफ-हफ
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें

अपने दुखों की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलांचे मरने की फिराक में
ओह, सूर्य किरणों को पकड़ रही हैं औरतें


गलती वहीँ हुई थी


तुम्हारे अँधेरे मेरी ताक में हैं
और मेरे हिस्से के उजाले
तुम्हारी गिरफ़्त में

हाँ
गलती वहीँ हुई थी
जब मैंने कहा था
तुम मुझको चाँद ला के दो

और मेरे चाँद पर मालिकाना तुम्हारा हो गया


इन दिनों


एक जंगल-सा उग आया है
मेरे भीतर
इन दिनों

वहां रास्ते नहीं
पगडंडियाँ नहीं
कोई जाने-पहचाने निशान नहीं

कोई जल्दी नहीं
बेख़बर है यह दुनिया
समय की हलचलों से

चाँद उग आया है यहाँ
उल्टा होकर


सीख रही हूँ मैं


मैं सीख रही हूँ
शब्दों को सीधा रखना
तरतीबवार
अलगनी से उतार कर
सलीके से उनकी सलवटें निकालना
शब्दों को पहचानना उनकी परछाईं से
उनमें गुंजाइशें तराशना
सीख रही हूँ

दरअसल
शब्दों को छीला जाना है अभी
ताकि वे बने नागफनी-से नुकीले
और छूते ही टीस भर दें 


प्रस्तुति--यशवन्त माथुर 
सहयोग-अंजू शर्मा